आपके काम ही संस्कार हैं, इसी से चरित्र बनता है

आपके काम ही संस्कार हैं, इसी से चरित्र बनता है

गीता का मूल सूत्र है- निरंतर कर्म करते रहो, लेकिन उसमें आसक्त मत हो जाओ। जिस ओर मन का विशेष झुकाव होता है, मोटे रूप से उसे ही 'संस्कार' कह सकते हैं। यदि मन को एक तालाब मान लिया जाए, तो उसमें उठने वाली हर लहर शांत होने के बाद भी पूरी तरह खत्म नहीं हो जाती। वह एक प्रकार का चिह्न छोड़ जाती है साथ ही ऐसी संभावना का निर्माण कर जाती है, जिससे वह लहर दोबारा फिर से उठ सके।

इस चिह्न तथा इस लहर के फिर से उठने की संभावना को मिलाकर हम संस्कार कह सकते हैं। हमारा हर काम, प्रत्येक अंग-संचालन, हरेक विचार हमारे मन पर इसी प्रकार का एक संस्कार छोड़ जाता है। भले ही ये संस्कार ऊपरी दृष्टि से स्पष्ट न हों, लेकिन अज्ञात रूप से अंदर ही

अंदर कार्य करने में विशेष प्रबल होते हैं। हम हर क्षण जो कुछ हैं, वह इन संस्कारों के समुदाय से ही नियमित होता है। मैं इस क्षण जो कुछ हूं, वह मेरे जीवन के अतीत के समस्त संस्कारों का प्रभाव है। इसे ही 'चरित्र' कहते हैं और प्रत्येक मनुष्य का चरित्र इन संस्कारों की समष्टि द्वारा ही नियमित होता है। यदि अच्छे संस्कार प्रबल रहें, तो

इंसान का चरित्र अच्छा होता है और यदि अशुभ संस्कार बलवान हो, तो चरित्र बुरा। यदि एक मनुष्य निरंतर बुरे शब्द सुनता रहे, बुरे विचार सोचता रहे, बुरे कर्म करता रहे, तो उसका मन भी बुरे संस्कारों से भर जाएगा और बिना उसके जाने ही वे संस्कार उसके समस्त विचारों तथा कार्यों पर अपना प्रभाव डाल देंगे। - स्वामी विवेकानंद की किताब 'कर्मयोग' किताब से साभार

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